दीपावली पर गांव रोशन, शहर सूने

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दीपों का पर्व “दीपावली” केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा है। जहां एक ओर यह पर्व अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह पारिवारिक मेल-मिलाप, अपनापन और सांस्कृतिक विरासत को जीवंत करता है। परंतु आधुनिक समय में एक दृश्य विशेष रूप से उभरकर सामने आता है – गांव रोशन होते हैं और शहर सूने। हर साल त्योहारों के समय बड़ी संख्या में लोग अपने गांव लौटते हैं। नौकरी, व्यापार, पढ़ाई – किसी भी वजह से शहरों में रहने वाले लोग जब दीपावली पर अपने गांव जाते हैं, तो शहर सूने हो जाते हैं। क्योंकि इंसान अपने ‘घर’ की ओर लौटता है, जहां उसे अपनापन मिले।

शहरों की चमचमाती सड़कों, मॉल्स और बहुमंजिला इमारतों के बीच दीपावली की रौनक जरूर दिखती है, लेकिन उसमें वह आत्मीयता नहीं होती जो कभी गांवों में महसूस होती थी। लोग व्यस्त हैं, कहीं ट्रैफिक जाम में फंसे हैं, तो कहीं मोबाइल स्क्रीन पर दीपावली की “वर्चुअल शुभकामनाएं” भेज रहे हैं। पटाखों की आवाज़ है, लेकिन दिलों की खामोशी उसे दबा देती है।

शहरों में दीपावली अब एक “इवेंट” बन गई है – डेकोरेशन, सेल्फी, सोशल मीडिया पोस्ट और शोर। लेकिन इसमें से वो ‘अपना पन’ कहीं खो गया है, जो इस त्यौहार की असली आत्मा था। वहीं दूसरी ओर, गांवों की गलियों में दीपावली के दिनों में एक अलग ही उत्साह होता है। मिट्टी के दीयों की रौशनी सिर्फ घर नहीं, दिलों को भी उजागर करती है। हर आंगन में रंगोली है, घर के बड़े लोग पूजा की तैयारी में लगे हैं, बच्चे पूरे मोहल्ले में दौड़ रहे हैं – मानो पूरे गांव में एक परिवार बसता हो।

यहां दीपावली सिर्फ दीप जलाने का नहीं, बल्कि रिश्तों को रोशन करने का त्योहार है। लोग एक-दूसरे के घर मिठाइयां लेकर जाते हैं, साथ बैठते हैं, हँसते हैं, कहानियाँ सुनाते हैं। बिजली की रोशनी से ज़्यादा मानवता की गर्मी इन गांवों को रौशन करती है।
शहर भले ही भौतिक सुख-सुविधाओं से भरपूर हों, लेकिन भावनात्मक जुड़ाव और सांस्कृतिक गर्माहट गांवों में आज भी जीवित है।

दीपावली का असली अर्थ सिर्फ रोशनी नहीं, बल्कि एक साथ मिलकर उस रोशनी को महसूस करना है। जब पूरा गांव एक साथ दीये जलाता है, तब वह सिर्फ रोशनी नहीं फैलाता, बल्कि एक संदेश देता है – “सच्चा सुख वहीं है, जहां दिल जुड़ते हैं।”

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