जयपुर। राजस्थान साहित्य अकादेमी, पिंकसिटी प्रेस क्लब और पीपुल्स मीडिया थिएटर के संयुक्त तत्वावधान में आज तीन दिवसीय पिंकसिटी लिटरेचर फेस्टिवल का भव्य शुभारंभ हुआ। उद्घाटन सत्र में शब्द, कला और चिंतन की गरिमा एक साथ उपस्थित थी। वरिष्ठ कवि, लेखक और गांधीवादी चिंतक नंदकिशोर आचार्य ने दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का आग़ाज़ किया और अपने संबोधन में कहा कि हिंदी में साहित्यिक महोत्सव आयोजित करना स्वयं में एक सांस्कृतिक दायित्व है—एक ऐसा दायित्व जो आज के समय में और भी महत्वपूर्ण हो गया है।
उन्होंने कहा कि साहित्य मनुष्य की स्वयं को परखने की प्रक्रिया है; आत्म की खोज ही साहित्य का मूल बीज है। समाज में साहित्य के प्रति उदासीनता पर उन्होंने चिंता व्यक्त की और कहा कि लेखक सबसे पहले अपने लिए लिखता है—अपने भीतर की आवाज़ को सुनने के लिए। यदि मानव जीवन में संवेदना और आत्मीयता को बचाए रखना है तो साहित्य और कलाएँ ही वह राह हैं जिनपर चलकर मनुष्य अपने आत्म से परे जाकर सोच सकता है।
वरिष्ठ संपादक ओम थानवी ने साहित्यिक आयोजनों को समाज की जीवन्तता का परिचायक बताया। उन्होंने कहा कि साहित्य के साथ अन्य कलाओं को जोड़ना इस आयोजन की मौलिक उपलब्धि है। उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य में फैलती गुटबाज़ी और एक तरह के जातिवाद पर खेद व्यक्त करते हुए कहा कि वैचारिक भिन्नता के बावजूद भी श्रेष्ठ लेखन संभव है—बल्कि यहीं से नए स्वर उत्पन्न होते हैं।
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी पवन अरोड़ा ने साहित्य को समाज की आत्मा बताया। उन्होंने कहा कि विचारों के टकराव से ही बौद्धिक क्रांति जन्म लेती है। शब्द मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति हैं, और यह महोत्सव उसी शक्ति की पहचान का अवसर है। उन्होंने कहा कि मनुष्य की आत्मा भावनाओं से पुष्ट होती है, तकनीक से नहीं; और पत्रकारिता के क्षेत्र में युवाओं के लिए साहित्य एक नया दृष्टिकोण और आलोचनात्मक विवेक विकसित करता है।
सुप्रसिद्ध कथक गुरु प्रेरणा श्रीमाली ने कला और संस्कृति के क्षरण पर गहरी चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि आज हम ऐसे दौर में हैं जहाँ नैतिक मूल्य लगभग विलुप्त हो रहे हैं और धैर्य क्षीण होता जा रहा है। सभ्यताएँ स्थायी हो सकती हैं, पर संस्कृति निरंतर परिवर्तनशील और गतिशील रहती है—और उसके मूल में कला, लोक परंपराएँ और चिंतन ही होते हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थान में शास्त्रीय कलाओं का स्थान लगातार सिमटता जा रहा है, जबकि कला ही जीवन की दृष्टि बदलने का सामर्थ्य रखती है।
फेस्टिवल के निदेशक अशोक राही ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न से अपनी बात शुरू की—क्या सचमुच इस समाज को अभी भी साहित्य की आवश्यकता है? उन्होंने कहा कि मनुष्य का सबसे बड़ा आविष्कार भाषा है, पर आज के समय में सबसे तेज़ी से नष्ट होता तत्व विचार है। जब समाज साहित्य से विमुख हो जाता है, तो उसका पतन निश्चित हो जाता है—और इसी पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। इस अवसर पर सुप्रसिद्ध छायाकार सुधीर कासलीवाल ने कहा कि रंगमंच और साहित्य हमारी आत्मा के दर्पण हैं। प्रेस क्लब के अध्यक्ष मुकेश मीणा ने इस आयोजन को ‘साहित्य का महाकुंभ’ कहा।
फेस्टिवल में “नई पीढ़ी क्या पढ़ना चाहती है?” विषय पर आयोजित सत्र विशेष रूप से चर्चित रहा। वरिष्ठ लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा कि यह धारणा पूरी तरह गलत है कि आज की ज़ेन-जी पीढ़ी पढ़ती नहीं। उनके पढ़ने के माध्यम बदल गए हैं—ई-बुक्स, किंडल, ऑडियो बुक्स और पॉडकास्ट ने पढ़ने को एक नई दिशा दी है। उन्होंने कहा कि आज के युवा मोटे उपन्यासों से बचते हैं, क्योंकि उनकी प्राथमिकताओं में करियर पहले स्थान पर है।
संपादक और लेखक यशवंत व्यास ने कहा कि आज पढ़ने की स्वतंत्र संस्कृति है—लोग वही पढ़ते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है। लेखन दो तरह का होता है—एक अपने लिए और दूसरा समाज के लिए। उन्होंने कहा कि 2010 के बाद दुनिया ‘इवेंट’ में बदल गई है, यहाँ तक कि मृत्यु भी एक इवेंट बन चुकी है। एआई को लेकर फैली चिंता पर उन्होंने कहा कि यह हमारे समाज और सभ्यता पर विश्वास कम होने का परिणाम है; रचनात्मकता कभी खत्म नहीं होती और एआई कोई खतरा नहीं है।
पत्रकार त्रिभुवन ने कहा कि युवा पीढ़ी को लेकर हमारी धारणाएँ अक्सर पूर्वाग्रहग्रस्त होती हैं। इतिहास गवाह है कि हर नई चीज़ का विरोध पहले शिक्षकों और अभिभावकों ने ही किया है—रेडियो से लेकर बॉल पेन तक। बाधाएँ बाहर नहीं, हमारे दृष्टिकोण में थीं।
वरिष्ठ साहित्यकार सुबोध गोविल ने कहा कि हम नई पीढ़ी को वही पढ़ाना चाहते हैं जो हम पढ़ चुके हैं, जबकि हमें उन्हें नया पढ़ने देने की स्वतंत्रता देनी चाहिए। उन्होंने ज़ेन-जी को एक “खाली स्लेट” बताया जिस पर नई कथाएँ, नए अनुभव, नए प्रश्न स्वयं आकार लेंगे। उन्होंने कहा कि यह समय साहित्य के लिए बेहद संभावनाशील है—जहाँ शून्य दिखाई देगा, वहीं कोई नया युवा आकर उसे भर देगा।
फेस्टिवल में “लोकतंत्र और समकालीन पत्रकारिता” पर भी एक महत्वपूर्ण सत्र हुआ, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ, हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एन. के. पांडेय, दैनिक भास्कर के संपादक तरुण शर्मा, पत्रकार अंकिता शर्मा और गरिमा श्रीवास्तव के बीच सार्थक संवाद हुआ।
दिन भर की चर्चाओं, विचारों, विमर्शों और कलात्मक संवेदनाओं की यात्रा का समापन एक मनमोहक मुशायरे के साथ हुआ, जिसने श्रोताओं के दिलों में साहित्य की रौशनी देर तक जगाए रखी।




















