जयपुर। ढूंढ़ाड़ की संस्कृति और लोक जीवन से जुड़ा 16 दिवसीय सांझी पर्व इस बार भी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर सर्व पितृ अमावस्या तक चलने वाले इस पर्व का महत्व न केवल धार्मिक दृष्टि से है, बल्कि यह किशोरियों को जीवन मूल्य और पारिवारिक संस्कार सिखाने का माध्यम भी माना जाता है। बदलते समय में जहां कभी मिट्टी और गोबर से सांझी की आकृतियां बनाई जाती थीं, वहीं अब पक्की दीवारों पर रंगों से बन रही है। कागज और फ्लैक्स से बने पोस्टरों लगाकर भी सांझी पूजन करने का चलन तेजी से बढ़ रहा है।
श्री सरस परिकर के प्रवक्ता प्रवीण बड़े भैया ने बताया कि लोक मान्यताओं के अनुसार सांझी देवी पार्वती का ही रूप हैं, जो पितृपक्ष के दिनों में अपने मायके आती हैं। इन 16 दिनों तक अविवाहित बालिकाएं शाम ढलते ही घर या मोहल्ले के किसी खुले स्थान पर एकत्रित होती हैं।
वे गोबर से दीवार पर आकृतियां बनाकर उन्हें फूलों और रंग-बिरंगी चमक-दमक से सजाती हैं। इसके बाद सामूहिक रूप से लोकगीत गाए जाते हैं और सांझी माता की आरती कर प्रसाद बांटा जाता है। गीतों में सांझी के मायके आने, उनकी विदाई और स्त्री जीवन से जुड़े अनेक संदर्भ सुनने को मिलते हैं।
समय के साथ परंपराओं में बदलाव स्वाभाविक है। पहले जहां कच्ची दीवारों पर गोबर से लीपकर सांझी बनाई जाती थी, वहीं आज पक्की दीवारों और आधुनिक घरों में इसकी जगह कागज या फ्लैक्स से बने पोस्टरों ने ले ली है। इन पोस्टरों पर सांझी की सुंदर आकृतियां छपी रहती हैं, जिन्हें बालिकाएँ आसानी से दीवारों पर चिपकाकर पूजन कर लेती हैं।
युवा पीढ़ी को जहां यह तरीका सरल और सुविधाजनक लगता है, वहीं बुजुर्गों का कहना है कि गोबर से बनने वाली पारंपरिक सांझी में मौलिकता और आत्मीयता थी। बावजूद इसके लोग मानते हैं कि स्वरूप चाहे बदले, लेकिन सांझी पर्व का महत्व और आस्था कायम है। रामगंज बाजार के लाड़लीजी मंदिर में श्राद्ध पक्ष में प्रतिदिन सांझी बनाई जा रही है। इसे पक्के रंगों से बनाया जाता है। प्रतिदिन इसका आकार बढ़ता जाता है। अमावस्या को सबसे बड़े आकार की सांझी बनेगी।
ग्रामीण क्षेत्र में जीवित है परम्परा
ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सांझी पर्व पूरी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। भले ही शहरीकरण और बदलते परिवेश ने इसकी परंपरा में कुछ परिवर्तन ला दिए हों, लेकिन बालिकाओं का उत्साह और आस्था आज भी सांझी पर्व को जीवित बनाए हुए है। यही कारण है कि यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि जयपुर की समृद्ध लोकसंस्कृति का जीवंत उदाहरण भी है।