जयपुर। किशोर मन की जटिल भावनाओं और पारिवारिक-सामाजिक दबावों को केंद्र में रखकर साहित्यकार डॉ. सूरज सिंह नेगी द्वारा लिखे गए उपन्यास ‘भावेश जो कह न सका’ का विमोचन बुधवार को झालाना संस्थानिक क्षेत्र स्थित राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति में हुआ। कार्यक्रम का आयोजन ‘ग्रासरूट मीडिया फाउंडेशन’ की ओर से किया गया।
कार्यक्रम में राज्य के सहकारिता एवं नागरिक उड्डयन मंत्री गौतम कुमार दक भी उपस्थित थे। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता लेखक और चिंतक डॉ. सुरेंद्र सोनी ने की और उपन्यास की समीक्षका लेखिका और शिक्षिका आशा शर्मा द्वारा की गई। कार्यक्रम में ग्रासरूट मीडिया फाउंडेशन के संस्थापक प्रमोद शर्मा सहित कई शिक्षाविद, विद्यार्थी और साहित्य प्रेमी मौजूद रहे। कार्यक्रम में राज्य के सहकारिता एवं नागरिक उड्डयन मंत्री गौतम कुमार दक ने पुस्तक का विमोचन करते हुए कहा, ऐसी रचनाएं समाज के उस मौन हिस्से को आवाज़ देती हैं जो अक्सर अनसुना रह जाता है। यह उपन्यास आज के बच्चों और अभिभावकों दोनों के लिए एक दर्पण की तरह है।
साहित्यकार डॉ. सूरज सिंह नेगी ने अपनी रचना यात्रा साझा करते हुए कहा, ‘यह कृति न केवल एक कहानी कहती है, बल्कि समाज को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करती है। यह उपन्यास उन किशोरों की आवाज़ है जो अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर पाते और जिनकी चुप्पी अक्सर एक गहरे संदेश में बदल जाती है। माता-पिता की ऊंची महत्वाकांक्षाओं, आंखों में देखे गए सपने अपने बच्चों पर थोपने का क्या परिणाम होता है। जीवन के आखिरी पड़ाव में वृद्धावस्था का दंश झेल रहे वृद्धजन के दुखों का कारण कहीं वे स्वयं तो नहीं हैं, जिन्होंने अपने बच्चों पर केवल सपने थोप उन्हें पूरा करने का माध्यम मान लिया।
आज की शैक्षणिक दुनिया में बच्चे चलना, फिरना या दौड़ना नहीं सीख रहे, अपितु उन्हें उड़ना सिखाया जा रहा है। क्या सफलता अर्जित करने के पश्चात वे उस देहरी पर लौट कर वापस आ पाते हैं जहां से बाहर निकले थे। क्या सभी बच्चों की क्षमता समान होती है, संवेदनशील और भावुक मन किशोर जब स्वयं को माता-पिता द्वारा देखे गए सपने को पूरा करने में असमर्थ पाता है, तब भावुकता में उठाया गया क़दम कितना घातक हो सकता है शायद उसे स्वयं को भी नहीं मालूम और अपने पीछे छोड़ जाता है एक गहरा अंधकार।
लेकिन इसका जिम्मेदार आखिर कौन? क्या अकेले माता-पिता, परिवार, समाज, परिवेश या व्यवस्था भी…जिन परिवारों, घरों या यहां तक गांवों, कस्बों में अपने सपने बच्चों पर थोपने का फ़ैशन बनता जा रहा है उनका भविष्य क्या है? वीरान होते गांव, सूनी होती घर की चौखट और एक दौर में बूढों के गांव में तब्दील होते जा रहे अनेक गांव/कस्बे।आखिर जिम्मेदार कौन? क्या इस स्थिति से बाहर निकलने का कोई मार्ग है भला? इस उपन्यास में आज के किशोरों की मनोवैज्ञानिक पीड़ा और पारिवारिक/सामाजिक दवाब के चित्रण का प्रयास किया गया है।
साहित्यकार डॉ. सूरज सिंह नेगी वर्तमान में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। डॉ नेगी की कई रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है और इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन भी किया है। इनकी रचनाओं में पापा फिर कब आओगे, रिश्तों की आंच, वसीयत, नियति चक्र आदि शामिल है। इन्हें फाकिर एजाजी अवार्ड, डॉ. दुर्गालाल सोमानी पुरस्कार आदि साहित्यिक पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं।
इस अवसर पर वक्ताओं ने किशोरों पर बढ़ते सामाजिक और पारिवारिक दबावों, सफलता की परिभाषा में आए बदलाव और अभिभावकों की भूमिका जैसे मुद्दों पर सार्थक चर्चा की।




















